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आस्था और सौंदर्य

रामविलास शर्मा

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2019
पृष्ठ :257
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 3175
आईएसबीएन :9788126703654

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डॉ. रामविलास शर्मा की यह मूल्यवान आलोचनात्मक कृति भारोपीय साहित्य और समाज की क्रियाशील आस्था और सौंदर्य की अवधारणाओं का व्यापक विश्लेषण करती है

Aastha Aur Saundaraya a hindi book by Ramvilas Sharma - आस्था और सौंदर्य रामविलास शर्मा

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

डॉ. रामविलास शर्मा की यह मूल्यवान आलोचनात्मक कृति भारोपीय साहित्य और समाज की क्रियाशील आस्था और सौंदर्य की अवधारणाओं का व्यापक विश्लेषण करती है। इस संदर्भ में रामविलास जी के इस कथन को रेखांकित किया जाना चाहिए कि अनास्था और संदेहवाद साहित्य का कोई दार्शनिक मूल्य नहीं हैं, बल्कि वह यथार्थ जगत की सत्ता और मानव-संस्कृति के दीर्घकालीन अर्जित मूल्यों के अस्वीकार ही प्रयास है। उनकी स्थापना है कि साहित्य और यथार्थ जगत का संबंध सदा से अभिन्न है और कलाकार जिस सौंदर्य की सृष्टि करता है, वह किसी समाज-निरपेक्ष व्यक्ति की कल्पना की उपज न होकर विकासमान सामाजिक जीवन से उसके घनिष्ठ संबंध का परिणाम है।
रामविलासजी की इस कृति का पहला संस्करण 1961 में हुआ था। इस संस्करण में दो नए निबन्ध शामिल हैं। एक गिरिजाकुमार माथुर की काव्ययात्रा के पुनर्मूल्यांकन और दूसरा फ्रांस की राज्यक्रांति तथा मानवजाति के सांस्कृतिक विकास की समस्या को लेकर। इस विस्तृत निबंध में लेखक ने दो महत्त्वपूर्ण सवालों पर खासतौर से विचार किया है। कि क्या मानवजाति के सांस्कृतिक विकास के लिए क्रांति आवश्यक है और फ्रांस ही नहीं, रूस, की समाजवादी क्रांति भी क्या इसके लिए जरूरी थी ? कहना न होगा कि समाजवादी देशों की वर्तमान उथल-पुथल के संदर्भ में इन सवालों का आज एक विशिष्ट महत्त्व है।

 

दूसरे संस्करण की भूमिका

 

इस संकलन में तीन निबंध- ‘अनास्था और अयथार्थ का साहित्य’, ‘अनास्थावादी प्रतिमानों की परंपरा’ और ‘अनास्थावादी खंडित कला’ –मार्क्सवाद और प्रगतिशील साहित्य नाम की पुस्तक में मैंने शामिल कर लिए थे। वे यहाँ नहीं है। पहले संस्करण की शेष साम्रगी ज्यों-की-त्यों यहाँ दी जा रही है। दो निबंध जोड़े गए हैं, एक है गिरिजाकुमार माथुर पर, दूसरा फ्रांस की राज्यक्रान्ति पर।  
आस्था और सौन्दर्य के निबंधों की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि का संक्षिप्त ब्यौरा पहले संस्करण की भूमिका में दे दिया गया है। इसमें जिस आंतरिक संघर्ष का उल्लेख है, वह काफी पुराना है और उसकी शुरुआत स्वाधीनता-प्राप्ति से पहले हो चुकी थी। मई 1947 के ‘हंस’ में गिरिजाकुमार माथुर पर मेरा लेख छपा था। इस संकलन में ‘आधुनिक हिंदी कविता: विकास की दिशा’ का पहला भाग यह लेख है। इसके आरंभ में उन ‘संशयात्माओं’ का उल्लेख है जो समझते हैं कि राजनीतिक विषयों पर उच्चकोटि की कविता नहीं लिखी जा सकती। साहित्य को अंतर्मुखी बनाओ, उसे सामाजिक संघर्ष से दूर रखो, यह प्रचार मई 1947 से पहले आरंभ हो चुका था।

नई कविता और अस्तित्ववाद में कई जगह मैंने गिरिजाकुमार माथुर की आलोचना की है। इस आलोचना के बारे में कई मित्रों ने कहा, गिरिजाकुमार की प्रगतिशीलता पहले तो उछाली गई, अब एकदम नकार दी गई है। गिरिजाकुमार की प्रगतिशीलता पर मैंने मई 1947 में जो कुछ कहा था, पाठक उसे यहाँ पढ़ सकते हैं। उसके साथ नई कविता और अस्तित्ववाद के दूसरे निबंध में गिरिजाकुमार के बारे में कही हुई इन बातों की मिलान कर लें-
‘‘केदार का यथार्थ-बोध जैसे अवध-सीमांत के गाँवों से बँधा हुआ था, वैसे ही गिरिजाकुमार का यथार्थ-बोध विंध्या के टीलों और पठारों से संबद्ध था। इसके साथ अब उनकी राजनीतिक चेतना में निखार आया था...नरेन्द्र शर्मा के बाद गिरिजाकुमार माथुर ने बड़ी समर्थ राजनीतिक कविताएँ लिखी थीं जो अपनी चित्रमयता में अद्वितीय थीं।’’
नई कविता और अस्तित्ववाद में एक निबंध है: ‘छायावादोत्तर नई छायावादी कविता’। इसमें एक वाक्य है: ‘‘ ‘उच्छृंखल’ से लेकर ‘जो बँध न सका’ तक –तीस वर्षों की दीर्घ अवधि में- गिरिजाकुमार ने राग साधा है, वह देहरसवाला राग है।’’ पुस्तक में कही हुई और सब बातों को अलग हटाकर इस वाक्य को निरपेक्ष सत्य के रूप में न ग्रहण करना चाहिए। मई 1947 वाले लेख में भी ऐसा ही एक वाक्य है: ‘‘गिरिजाकुमार ने अपना कवि-जीवन प्रेम और सौंदर्य के स्वप्नों से आरंभ किया था, अब भी वह प्रेम और सौंदर्य के कवि हैं।’’ इसे भी संदर्भ से अलग हटाकर न देखना चाहिए।

स्वाधीनता-प्राप्ति के बाद अनेक कवियों के दृष्टिकोण में परिवर्तन हुआ। दूसरों की अपेक्षा गिरिजाकुमार माथुर के दृष्टिकोण में यह परिवर्तन विलंब से हुआ। परिवर्तन हुआ, इसमें संदेह नहीं है: क्यों हुआ, इस पर बहस हो सकती है। मई 1947 में मुझे उनकी जो सीमाएँ दिखाई देती थीं, वे इस प्रकार है: ‘‘उपमाओं की चित्रमयता के बावजूद ऐसा मालूम होता है कि कवि का कल्पना-क्षेत्र अभी सीमित है। उसने अपने आसपास के जीवन-संघर्ष को देखा है: जनता के एक विशाल समुदाय की हलचल से बेखबर है। उसकी कल्पना में अधिक रक्तमांस भरने की गुंजाइश है और जरूरत भी। जिस क्रम में गिरिजाकुमार की कविता-धारा बढ़ती गई है, उस क्रम को अक्षुण्ण बनाने के लिए जरूरी है कि राह के घेरों को वह तोड़ दें।’’ ये घेरे तो उन्हीं को तोड़ने थे। वे उन्हें नहीं तोड़ पाए, यह उनके विचलन का मुख्य कारण था।

जो दूसरा निबंध मैंने इस संस्करण में जोड़ा है, वह ‘फ्रांस की राज्यक्रान्ति और मानवजाति के सांस्कृतिक विकास की समस्या’ है। फ्रांस की राज्यक्रान्ति 1789 में हुई: दो सौ साल बाद 1989 में उसकी सालगिरह संसार के अनेक देशों में मनाई गई। प्रश्न है: क्या मानव-जाति के सांस्कृतिक विकास के लिए आवश्यक थी ? फ्रांस ही नहीं, क्या रूस की समाजवादी क्रांति इस सांस्कृतिक विकास के लिए आवश्यक थी ? इस प्रश्न के उत्तर, जैसे समझ में आए, मेरे लेख में हैं। फ्रांसीसी राज्यक्रांति ने समस्त यूरोप के चिंतन को प्रभावित किया, यह तथ्य निर्विवाद है। बानगी के तौर पर लेख में अंग्रेज कवियों के नए दृष्टिकोण की चर्चा है। यह दृष्टिकोण उपनिवेशवाद का विरोधी, भारतीय स्वाधीनता का समर्थक था। चार्टिस्ट आंदोलन के नोताओं ने यह दृष्टिकोण अपनाया और 1857 में घोर कठिनाइयों का सामना करते हुए उन्होंने हमारे स्वाधीनता-संग्राम का समर्थन किया। इंग्लैंड में जो उपनिवेशवाद के समर्थक थे, वे फ्रांसीसी राज्यक्रांति के विरोधी थे, इस क्रांति से प्रभावित अंग्रेजी कविता के विरोधी थे। वे हिंदी की नई कविता के आचार्यों के गुरु थे।

हमारे लिए यह गर्व की बात है कि 1857 में इंजीनियर मोहम्मद अली खाँ जैसे लोग इस देश में थे, वे फ्रांस की राज्यक्रांति के इतिहास से परिचित थे, वे उसकी प्रेरणा स्वीकार करते थे और सचेत रूप से देश को अंग्रेजों के चुंगल से छुड़ाने का प्रयत्न कर रहे थे। 1789 की फ्रांसीसी क्रांति और 1905 की रूसी क्रांति- इनकी कुछ विशेषताएँ 1857 के गदर में हैं।
गदर की चर्चा लेख के दूसरे भाग में है। जो लोग इंग्लैंड की रोमांटिक कविता का मानवतावादी पक्ष स्वीकार नहीं करते, वे 1857 के गदर को स्वाधीनता-संग्राम नहीं मानते, हिंदी साहित्य पर उसका प्रभाव स्वीकार नहीं करते, वे छायावादी साहित्य का मानवतावादी पक्ष भी स्वीकार नहीं करते।
बीसवीं सदी में रूसी क्रांति, दूसरे महायुद्ध के बाद चीन, वियतनाम, क्यूबा, अंगोला, इथिओपिया, निकारगुआ आदि की क्रांतियाँ साम्राज्यवाद की विश्व-व्यवस्था को बदलने का प्रयत्न हैं, यह प्रक्रिया संसार की वस्तुगत परिस्थितियों से उत्पन्न हुई है, उसे रोका नहीं जा सकता, उसे उलटकर विरोधी दिशा में चलाना किसी के बस में नहीं है। संक्षेप में, लेख के तीसरे भाग में संसार की वर्तमान परिस्थितियों की चर्चा है।

हमारे देश में विभिन्न प्रांतों में जो साम्राज्यविरोधी सांस्कृतिक जागरण आरंभ हुआ, वह अन्य देशों की राज्यक्रांतियों के विवेचन को समेटे हुए था। हिंदी में इसके एक प्रतिनिधि थे महावीरप्रसाद द्विवेदी के घनिष्ट सहयोगी माधव राव सप्रे। मई 1913 की ‘सरस्वती’ में उनका लेख छपा था- ‘फ्रांस की राज्यक्रांति’। लेख में देवीप्रसाद वर्मा द्वारा संपादित माधव राव सप्रे: इतिहास चिंतन (विश्व भारती प्रकाशन, नागपुर) में संकलित है। लेख के आरंभ में उन अंग्रेज विद्वानों के नाम बताए गए हैं जिनके ग्रंथों की सामग्री का उपयोग किया गया है। यह सूचना ब्रिटिश अधिकारियों के लिए है कि वे लेख में राज्य द्रोह के तत्त्व न ढूँढ़ें। पर सप्रे जी का ध्यान पराधीन भारत पर है, वह राज्यक्रांति का विवेचन इस भारत की तत्कालीन समस्या के समाधान के लिए कर रहे हैं। कहते हैं, ‘‘इसमें कोई संदेह नहीं कि इतिहास में भूतकाल की घटनाओं से, वर्तमान समय में, नतीजा निकालने का काम बहुत सावधानी, चतुरता और दक्षता से किया जाना चाहिए।’’ (इतिहास चिंतन, पृ.43)

उन्होंने स्वयं तो चतुराई से काम लिया ही है-क्रांति के दौरान बहुत से लोग मारे गए, इसकी निंदा की है-वह यह भी चाहते थे कि पाठक चतुराई से काम लें और वर्तमान समय के लिए आवश्यक नतीजे निकाल लें। यह काम बहुत कठिन नहीं था।
क्रांति के पहले फ्रांस की दशा यह थी: ‘‘एक वर्ग में वे बड़े सरदार, जमीनदार, रईस, धर्माधिकारी इत्यादि लोग थे जो समझते थे कि हमको देश की सम्पत्ति के उपयोग करने का स्वाभाविक हक है... दूसरे वर्ग में सर्वसाधारण लोग थे, जो हकदार वर्ग के आधीन रहकर किसी न किसी प्रकार अपना पेट भरते थे।’’ दो वर्ग अलग-अलग, इन वर्गों की टक्कर, इस टक्कर का प्रतिफलन है क्रांति। भारत में अंग्रेज और थोड़े –से उनके सहयोगी जमींदार रईस सारी संपदा हथियाए बैठे थे और जनता भूखों मर रही थी, लेख का हर पाठक यह बात समझ सकता था।

क्रांति में लेखकों की भूमिका यह थी: ‘‘अठारहवीं सदी में, स्वतंत्र विचार के कुछ लेखकों ने हकदार लोगों के हकों की सारी पोल खोल दी।’’ (उप.पृ.45)। खास तौर से रूसो ने लिखा कि ‘‘सारे मनुष्य समान है-छोटे बड़े का भेद कृत्रिम है।’’ (उप.) ऊँच-नीच के भेदवाले समाज के लिए यह संदेश महत्त्वपूर्ण था। क्रांति के दौरान जो लोग मारे गए, वे विदेशी आक्रमण की परिस्थितियों में मारे गए। ‘‘फ्रांस पर चढ़ाई करने के लिए रियासतों के साथ इटली, स्पेन, आस्ट्रिया, रूस, इंग्लैंड इत्यादि यूरोप के सभी देश तैयारी करने लगे। इस सम्मिलित शक्ति का सामना करना सहज काम न था।’’ (उप.पृ.53)।
देश की उचित रक्षा व्यवस्था के लिए ‘‘अफसरों तथा उनके अधीनस्थ लोगों को यह विश्वास होना चाहिए कि यदि हम सरकार की आज्ञा न मानेंगे तो हमारी हानि होगी।’’ (उप.)। बहुत की हानि हुई, ‘‘तथापि उससे यह फल प्राप्त हुआ कि लोग गुप्तरीति से, राजा, हकदार वर्ग या विदेशियों का पक्षपात करने से डरने लगे।’’ (उप.पृ.54) सप्रे जी ने ‘आतंक’ को इतिहास के सही परिप्रेक्ष्य में देखा है।

क्रांति की एक बड़ी उपलब्धि यह थी कि क्रांतिकारी चिंतन की अमोघ शक्ति प्रदर्शित की। मनुष्य को उसके स्वाभाविक अधिकार मिलने चाहिए, यह धारणा आम लोगों तक पहुँची। ‘‘यह इन्हीं नूतन विचारों अथवा भावों का प्रभाव है कि लोग अपने देश की प्राचीन राजसत्ता तथा हकदार वर्गों की प्रचंड शक्ति के विरुद्ध सफलतापूर्वक लड़ सके। और इन्हीं नूतन विचारों की बदौलत वे लोग यूरोप की सम्मिलित सेना को पीछे हटाकर अपने प्रदेश की रक्षा कर सके। तात्पर्य यह कि, जिन विचारों अथवा भावों से मनुष्य जाति का (किसी विशेष व्यक्ति, वर्ग या श्रेणी का नहीं) कल्याण और हित होता है, उन विचारों या भावों में अद्भुत सामर्थ्य होता है-उनमें विलक्षण कार्य-क्षमता होती है।’’ (उप.पृ.55,56)
मानवजाति का सांस्कृतिक विकास ऐसे ही भावों और विचारों से होता है। उन्हें फैलाने का काम लेखक करते हैं, इस तरह देश की जनता का साथ देकर वे क्रांति का मार्ग प्रशस्त करते हैं। मानवजाति के सांस्कृतिक विकास से क्रांति का संबंध सूत्र रूप में सप्रे जी के लेख से स्पष्ट हो जाता है।

श्याम बिहारी राय ने ‘आस्था और सौंदर्य’ की अपनी प्रति की फोटो कापी करा के मुझे दी और गिरिजाकुमार माथुर ने अपने ऊपर लिखे हुए मेरे पुराने लेख की प्रतिलिपि मुझे दी, इसके लिए मैं इन दोनों सज्जनों का आभारी हूँ।     

 

-रामविलास शर्मा


पहले संस्करण की भूमिका

 

 

कुछ दिन हुए ‘हंस’ के संपादकों ने पत्र का प्रकाशन पुन: आरंभ करते हुए अपनी विज्ञप्ति में कहा था, ‘‘प्राय: सभी सामाजिक, नैतिक, सांस्कृतिक मान-मूल्य आज टूटने और बनने की प्रक्रिया में हैं।’’ ‘हंस’ में लिखने का निमंत्रण देते हुए श्री बालकृष्ण राव ने अपने 11 जून 1956 के पत्र में लिखा था, ‘‘कुंठाओं और कटुताओं की घुटन में, पुरानी मान्यताओं के ध्वंसावशेष के बीच खड़ा हुआ आज का साहित्यकार किसके सहारे, किसके लिए लिख रहा है ?’’

प्रस्तुत निबंध संग्रह में आस्था और कुंठा, मूल्यों के विघटन और निर्माण की समस्याओं का विवेचन किया है। जो लोग समझते हैं कि साहित्यकार का मुख्य दर्शन संदेहवाद होना चाहिए, उसे किसी मूल्य में आस्था न रखनी चाहिए, वे यथार्थ जगत की सत्ता को भी अस्वीकार करते हैं और इस प्रकार मानव संस्कृति के अर्जित मूल्यों को ठुकराने के लिए एक दार्शनिक तर्क ढूँढ़ लाते हैं। प्रथम निबंध ‘यथार्थ-जगत और साहित्य’ में संदेहवादी और अज्ञेयवादी दृष्टिकोण का खंड़न करते हुए यथार्थ जगत और साहित्य के अभिन्न संबंध की पुष्टि की है। कलाकार जिस सौंदर्य की सृष्टि करता है, वह समाज निरपेक्ष किसी व्यक्ति की कल्पना की उपज नहीं है वरन सामाजिक जीवन और सामाजिक विकास से उनका घनिष्ठ संबंध होता है। कलात्मक सौंदर्य आर्थिक संबंधों का प्रतिबिंब  नहीं है; समाज तंत्र से उसका संबंध पेचीदा है। इस संबंध की व्याख्या दूसरे निबंध में है। तीसरे निबंध में यूनानी आलोचक लोंगिनुस की उदात्त-संबंधी विचारधारा की चर्चा, भारतीय काव्यशास्त्र की रमणीयता से उसकी तुलना, उच्च सामाजिक जीवन और श्रेष्ठ कृतित्व के संबंध का उल्लेख है। लोंगिनुस के समय में भी अनेक अनास्थावादी लेखक कुंठा और घुटन का साहित्य रचने लगे थे। लोंगिनुस ने उनकी तीव्र आलोचना की है जो हमारी पीढ़ी के लेखकों के लिए शिक्षाप्रद होगी। चौथे निबंध में भाववादी दार्शनिक हेगल द्वारा कलाओं के वर्गीकरण, माध्यम के अनुसार उनकी श्रेष्ठता, निकृष्टता निश्चित करने के प्रयास और बहुमुखी कलात्मक जीवन और सांस्कृतिक विकास की आवश्यकता का विवेचन किया गया है। इस प्रकार इन चार निबंधों में आस्था और सौंदर्य यथार्थ-जगत और साहित्य के संबंध की सैद्धांतिक व्याख्या की गई है।

इसमें बाद के सात निबंधों में अनेक साहित्यकारों की कृतियों का विश्लेषण करके उन नैतिक मूल्यों की ओर ध्यान दिलाया गया है जिनके बिना उनका साहित्य अपना स्थायी कलात्मक सौंदर्य न प्राप्त कर सकता। कालिदास और शेक्सपियर जैसे विश्वप्रसिद्ध साहित्यकार इन नैतिक मूल्यों से परे नहीं हैं; उनका काव्य-सौंदर्य सामाजिक जीवन से तटस्थ रहकर नहीं रचा गया। प्रेमचंद ने नए युग में पुराने मानवतावाद को नए स्तर पर विकसित किया। आज का हिंदी कथा-साहित्य बहुत कुछ प्रेमचंद की परंपरा को अपनाकर आगे बढ़ रहा है।

चार निबंधों में (बारह से पंद्रह तक) अनास्थावादी साहित्य का खंड़न है। इस तरह का साहित्य रचनेवाले हिंदी के अनेक कवि हैं जिन्हें निराला और प्रसाद का साहित्य बचकाना लगता है जो अपने साहित्य की परंपरा से विच्छिन्न होकर मौलिकता के नाम पर पाश्चात्य साहित्य की पतनशील धाराओं से अपना संबंध जोड़ते हैं। इन्हीं में ‘ज़िवागो’ उपन्यास के लेखक पस्तेरनाक हैं जो अपने देश का साहित्यिक विरासत को वैसे ही ठुकरा चुके हैं जैसे हिंदी के कुंठावादी कवि छायावादी काव्य को ठुकराते हैं। अंतिम तीन निबंधों में आज के भारतीय साहित्य और हिंदी कविता के विकास की मुख्य दिशा की ओर संकेत है। श्री बनारसीदास चतुर्वेदी ने जो शहीद-संस्मरण प्रकाशित कराए हैं, वे साहित्यकारों के लिए भी प्रेरणादायक हैं। इन संस्मरणों में हम देखते हैं कि हमारे देश के वीरों ने अपने प्राणों की बाजी लगाकर देश के भविष्य में, विश्व-मानवता और भारतीय जनता की शक्ति में अपनी आस्था प्रामाणित की थी। ऐसे देश में कुंठा और अनास्था के लिए जगह नहीं है।

अनास्था, कुंठा और घुटन की भावधारा क्षणिक है। इसका आधार हमारे सामाजिक जीवन में कम है, विदेश की सांस्कृतिक धाराओं में अधिक है। इसलिए हमें विश्वास है कि हिंदी साहित्य की भागीरथी इस कर्दम को बहाकर एक ओर फेंक देगी और अपने गौरवशाली इतिहास के अनुरूप ही जीवनदायी निर्मल जल से भरी हुई प्रवाहित होगी। आशा है, वर्तमान साहित्य की गतिविधि में रुचि रखनेवाले पाठकों को आस्था और अनास्था के महत्त्वपूर्ण प्रश्न से संबंधित इस संग्रह में यत्किंचित् विचारणीय सामग्री प्राप्त होगी।

 

1
यथार्थ जगत और साहित्य

 

 

साहित्य और यथार्थ जगत के संबंध पर विचार करना इसलिए आवश्यक होता है कि यूरोप और अमरीका के अनेक साहित्यकार यथार्थ जगत के अस्तित्व या महत्त्व को अस्वीकार करके अपने मानस से साहित्य-सृष्टि करने का दावा करते हैं। इसके लिए वे भाववादी दर्शन की विभिन्न विचारधाराओं का सहारा लेते हैं। इस सबका प्रभाव हिंदी साहित्य पर भी पड़ रहा है और अनेक हिंदी लेखक भारतेंदु से लेकर प्रेमचन्द तक के साहित्य-विकास को बढ़ाने के बदले उसे किसी न किसी रूप में अस्वीकार करते हैं और विदेश की उन भावधाराओं को ग्रहण करते हैं जिनमें लेखक के अहम् की तुलना में समग्र संसार नगण्य ठहरता है।

प्लैटो, बर्कले, हेगल – यूरोप के इन भाववादी दार्शनिकों का प्रभाव वहाँ समाप्त नहीं हो गया। समाप्त होना तो दूर, आधुनिक भौतिकशास्त्र (फिजिक्स) की प्रगति से कुछ वैज्ञानिकों ने भी यह परिणाम निकाला है कि बाह्य जगत का अस्तित्व नहीं है। हाइजेनवर्ग और प्लांक के अनुसंधानों ने विज्ञान में संदेहवाद या अज्ञेयवाद को प्रश्रय दिया। पहले पदार्थ और शक्ति (मैटर और एनर्जी) में अंतर माना जाता था। अब पता चला कि पदार्थ की गति लहरों के रूप में होती है।
प्रत्येक लहर (वेवलेंथ) का संबंध शक्ति (एनर्जी) के एक निश्चित माप से रहता है। शक्ति के इस माप को क्वांटम कहते हैं। यह क्वांटम केवल लहर की माप (वेवलेंथ) पर निर्भर रहता है। क्वांटम के बारे में धारणा यह है कि वह प्रति सेकेंड रेडिएशन के स्पंदनों के अनुपात में होता है।

संदेहवाद के उत्पन्न होने का कारण यह है कि प्रकृति में कण और लहर की पुरानी धाराओं के बदले हमें ऐसे पदार्थ के दर्शन होते हैं जो कण और लहर दोनों है। यदि कण की स्थिति का ही पता लगाना हो तो पुरानी पद्धति से पता लगा लिया जाए। किंतु जब वह कण लहर भी है, तब स्थिति का पता कैसे लगे ?
साथ ही यथार्थ जगत में हस्तक्षेप किए बिना उसे जानना संभव नहीं होता और हस्तक्षेप करते ही उसकी यथार्थता दूषित हो जाती है। इस संबंध में मौरिस कौर्नफोर्थ आदि मार्क्सवादी विचारकों का कहना है कि पुरानी नाप-जोख की पद्धति से यह कठिनाई उत्पन्न होती है। इससे परिणाम यह नहीं निकलता कि हम यथार्थ जगत को जान नहीं सकते वरन यह निकलता है कि उसे जानने की पुरानी पद्धति बदलना आवश्यक है। (देखिए मार्क्सिस्ट क्वार्टरली, जुलाई, 1954 में आर्थर सडैबी और मौरिस कौर्नफोर्थ का लेख ‘क्वांटम भौतिकशास्त्र की दार्शनिक समस्याएँ’।)

बर्ट्रेंड रसेल जैसे दार्शनिक दर्शनशास्त्र का मुख्य कार्य तार्किक विश्लेषण समझते हैं। उनके लिए सारे भ्रमों की जड़ भाषा का असंगत प्रयोग है। इस भ्रम को दूर करने का परिणाम यह होता है कि संसार ही भ्रम सिद्ध हो जाता है। विशुद्ध चेतना का अनुसंधान करनेवाले अनेक दार्शनिक बाह्य जगत के अस्तित्व से इनकार करते हैं।

लोग बात करते हैं अस्तित्ववाद की लेकिन इनकार करते हैं वाह्य जगत के अस्तित्व से। अस्तित्ववाद को प्रभावित करनेवाले किर्कगार्ड का कहना था, ‘सत्य केवल आत्मगत होता है’ (Truth is subjectivity)। इस प्रकार वस्तुगत सत्य को अस्वीकार कर दिया गया। फिलिप मैरे जैसे अस्तित्ववादी नीत्शे को भी अस्तित्ववादी मानते हैं। ‘‘नीत्शे किर्कगार्ड के बारे में कुछ न जानता था किंतु व्यक्ति की चिंता, निर्णय और भावना बल देने के कारण वह अस्तित्ववादी था।’’ नीत्शे के इस अस्तित्ववादी ने जर्मनी में युद्धकामी शक्तियों को प्रोत्साहन दिया जिससे दो बार विश्व-युद्ध हुआ। विश्व-युद्ध के मूल कारण आर्थिक और राजनीतिक थे। इन कारणों का ही एक परिणाम नीत्शे का व्यक्तिवाद था जिसने युद्ध-प्रचार में सहायता दी।
बीसवीं सदी में पूँजीवाद का विकृत दर्शन व्यक्तिवाद पर निर्भर है। साधारणत: वह मानवप्रगति का विरोध करता है; विशेष परिस्थितियों में वह युद्ध-प्रचार में सहायक भी हो जाता है।

कैथलिक और नास्तिक, दोनों प्रकार के अस्तित्ववादियों का सामान्य गुण बतलाते हुए सार्त्र ने लिखा है, ‘‘उनका विश्वास है कि तत्त्व पहले अस्तित्व है; दूसरे शब्दों में हमें शुरूआत आत्मगत पक्ष से करनी चाहिए।’’ यह आत्मगत पक्ष क्या है ? ‘‘प्रत्येक मनुष्य एक सार्वजनीन धारणा, मानव-संबंधी धारणा का विशेष उहाहरण है।’’ इससे यह न समझना चाहिए कि विशेष मानव की तुलना में सामान्य मानवता महत्त्वपूर्ण है। आशावादी विचारकों से भी अपनी भिन्नता विज्ञापित करते हुए सार्त्र ने लिखा है, ‘‘सत्य इसके सिवा और कुछ नहीं है कि मैं सोचता हूँ, इसलिए हूँ। यह उस चेतना का निरपेक्ष सत्य है जो अपने को प्राप्त करती है। अपने को प्राप्त करने के इस क्षण के बाहर मनुष्य के संबंध में जो भी सिद्धांत प्रतिपादित किया जाता है, वह सत्य का हनन करता है।’’ सार्त्र के अनुसार यह सिद्धांत मानव- गौरव के अनुकूल है क्योंकि इससे मनुष्य पदार्थ नहीं बन जाता। ‘‘सभी तरह के भौतिकवाद विचारक को बाध्य करते हैं कि वह सभी मनुष्यों को-अपने को भी-पदार्थ समझे अर्थात उसे पूर्वनिश्चित प्रतिक्रियाओं का परिणाम समझे जो मेज, कुर्सी या पत्थर के गुणसमूहों और संघटनों से भिन्न नहीं है।’’ नैतिक क्षेत्र में अच्छे-बुरे का निर्णय भी व्यक्ति ही करता है; जिस समाज का वह सदस्य है, उसे कुछ कहने का अधिकार नहीं है। ‘‘यदि मैं किसी काम को अच्छा समझता हूँ तो वह मैं ही हूँ जो उसके अच्छे-बुरे होने का निर्णय करता हूँ।’’ इस प्रकार मनुष्य परम असामाजिक प्राणी ठहरता है। साहित्य में साधारणीकरण की गुंजाइश ही नहीं रहती। सार्त्र की इस व्यक्तिवादी विचारधारा का असर अज्ञेय, धर्मवीर भारती प्रभृति आत्मोपलब्धि में तल्लीन निरपेक्ष व्यक्तिवाले सज्जनों पर देखा जा सकता है।

सार्त्र ने अपनी विचारधारा को सभी तरह भौतिकवाद से भिन्न ठीक ही बतलाया है। अस्तित्ववाद पुराने भाववाद- चेतना को सत्य और संसार को मिथ्या समझनेवाली विचारधारा-का ही एक रूप है। भाववाद के अनेक रूप अपना सबसे बड़ा शत्रु समझते हैं वैज्ञानिक भौतिकवाद को। भाववादियों के अनुसार वैज्ञानिक भौतिकवाद में आस्था रखनेवाले लोग मनुष्य में आस्था खो देते हैं। आस्था का प्रश्न हल करना है तो समाज निरपेक्ष अहम् में विश्वास करो। कला और साहित्य को उसी का विस्फोट मानो। कुछ अन्य मित्र जो संसार को मिथ्या नहीं कहते, वैज्ञानिक भौतिकवाद को दर्शन ही नहीं मानते। उनकी समझ में वैज्ञानिक भौतिकवाद जगत के स्वरूप की व्याख्या नहीं करता, न वह ज्ञान की समस्या हल करता है। प्रतीति में भी तो होता है; फिर कैसे जानें, कौन-सी प्रतीति भ्रम है और कौन-सी वास्तविक ज्ञान ? वैज्ञानिक भौतिकवाद व्यवहार पर बल देता है। इसे कुछ विद्वान शुद्ध चेतना का अपमान समझते हैं। ज्ञान का साक्ष्य चेतना के अंदर ही होना चाहिए; बाहर हुआ तो फिर दार्शनिकता कहाँ रही।

वैज्ञानिक भौतिकववाद के अनुसार मनुष्य प्रकृति की उपज है और विचार चेतना मानव-मस्तिष्क की उपज। मस्तिष्कहीन विचार और चेतना का अस्तित्व केवल कल्पना की वस्तु है। भौतिकता से परे चेतना का निवास नहीं है। जिस पदार्थ का गुण चेतना है, उसमें विद्युत-प्रहारों द्वारा हस्तक्षेप करके चेतना के अनेक अंगों को नष्ट किया जा सकता है। सर में चोट लगने से स्मृति का नष्ट होना साधारण अनुभव-क्षेत्र की बात है।

चेतना मस्तिष्क में निहित पदार्थ का गुण है, प्रकृति के एक अंश का गुण है, इसलिए वास्तविक विचार केवल चिंतन द्वारा अपने भीतर से उत्पन्न नहीं किए जा सकते। सही विचार के लिए मानव-चेतना और बाह्य जगत का सम्पर्क आवश्यक होता है। इस कारण ज्ञान का आधार मनुष्य का प्रत्यक्ष अनुभव है। अपने व्यवहार से ही मनुष्य अपना ज्ञान समृद्ध करता है। ज्ञान से वह व्यवहार-क्षेत्र में आगे बढ़ता है। इस आगे बढ़ने के नए अनुभव से वह अपने ज्ञान को फिर से समृद्ध करता है। इस प्रकार व्यवहार-क्षेत्र के विकास के कारण मनुष्य का ज्ञान नित विकसित होता रहता है। वैज्ञानिक भौतिकवादी के लिए व्यवहार-क्षेत्र से संन्यास केवल आत्मचिंतन से पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती। ‘‘जो लोग समझते है कि आँख मूँदकर ध्यान या समाधि लगाने से भूत, भविष्य, वर्तमान तीनों काल की बातें सूझने लगती हैं उन्हें इस पर ध्यान देना चाहिए।’’ ये शब्द रामचन्द्र शुक्ल ने ‘विश्व-प्रपंच’ की एक पाद-टिप्पणी में लिखे थे। जिन मूल वाक्यों पर उन्होंने टिप्पणी लिखी थी वे ये हैं, ‘‘अत: बिना इस प्रकार के बाह्य निरीक्षण के केवल आत्म-निरीक्षण-द्वारा निश्चित मनो व्यापार संबंधिनी बातें बाह्य पक्की नहीं समझी जा सकतीं। पर वाह्य निरीक्षण की पूर्णता के लिए शरीर-विज्ञान, अंगविच्छेद शास्त्र, शरीराणु-विज्ञान, गर्भ विज्ञान और जीव-विज्ञान इत्यादि का यथावत ज्ञान होना चाहिए।’’

बाह्य निरीक्षण आवश्यक है। केवल आत्म-निरीक्षण द्वारा मनोव्यापार-संबंधी –अर्थात चेतना संबंधी बातें पक्की नहीं समझी जा सकतीं। आँख मूँदकर ध्यान लगाने और भूत, भविष्य, वर्तमान के ज्ञान का दावा करनेवालों के हाथ आत्म-प्रवंचना ही लगती है।

वैज्ञानिक भौतिकवाद व्यवहार, अनुभव और प्रयोग से परे इलहाम द्वारा ज्ञान-प्राप्ति का दावा नहीं कर सकता। जो दार्शनिक व्यवहार से दूर रहकर विशुद्ध चिंतन से पूर्ण ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं या ऐसा ज्ञान प्राप्त करने का दावा करते हैं, वे अवश्य या तो स्वयं पैगंबर होंगे या किसा पैगंबर के सहारे उन्हें यह गुप्त ज्ञान प्राप्त हुआ होगा। उनके ज्ञान में उन्हीं को आस्था हो सकती है जो श्रद्धालु भक्त हैं; इलहाम की बातों को यह संदेह से देखनेवाले, व्यवहार द्वारा ज्ञान-अज्ञान का भेद करनेवाले वैज्ञानिकों को उस पर विश्वास नहीं हो सकता। भाववादी दर्शन ज्ञान की पूर्ण व्यवस्था देने का दावा करते हैं। भौतिकवादी दर्शन पूर्ण होने का दावा नहीं कर सकता क्योंकि वह ज्ञान को विकासमान समझता है। विश्व क्या है, पदार्थ का मूल रूप क्या है, जीव-अजीव का संबंध कैसा है, इन प्रश्नों के बारे में भौतिकवादी दर्शन विज्ञान से ऊपर उठकर, शुद्ध चिंतन के बल पर, निर्णयात्मक उत्तर नहीं देता। विश्व के प्रति उनका दृष्टिकोण, उसके तर्क और चिंतन की पद्धति वैज्ञानिक अनुभवों पर निर्भर है और इसलिए वह वैज्ञानिक प्रगति में सहायक होती है।

इंगलैंड के बेकन और लॉक जैसे चिंतकों ने अनुभव और व्यवहार को ज्ञान का आधार और उसकी कसौटी माना था। फ्रांस के भौतिकवादियों ने इस विचारधारा को विकसित किया था। वैज्ञानिक भौतिकवाद ने हेगल की द्वंद्वात्मक पद्धति और फ्रांस के भौतिकवाद से बहुत कुछ लिया। किंतु उसने ज्ञान और व्यवहार का संबंध नए ढंग से जोड़ा। मार्क्स ने कहा कि दार्शनिक ने अभी तक तरह-तरह से संसार की व्याख्या ही की है; लेकिन मुख्य बात है, उसे बदलने की।
वैज्ञानिक भौतिकवाद का जन्म संसार को समझने और उसे बदलने के लिए, मानवजीवन को सुखी बनाने के लिए हुआ। इसका कारण यह था कि इतिहास में एक नई घटना घट चुकी थी। यह घटना थी मजदूर-वर्ग का जन्म। यह वर्ग अपने जन्म से ही संसार को बदलने के स्वप्न देखने लगा था। मार्क्स ने स्वप्न को साकार करने की वैज्ञानिक पद्धति निकाली। व्यवहार और परिवर्तन पर इस प्रकार बल देने का यह अर्थ नहीं है कि वैज्ञानिक भौतिकवाद चिंतन को, बौद्धिक क्रिया को नगण्य समझता है। नहीं, बुद्धि को व्यवहार-जगत से संबद्ध करके वह बौद्धिक क्रिया को सार्थक करता है।

 

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